ज्योतिष तथा कर्म सिद्धांत
ज्योतिष का ज्ञान हमें वेदों से मिला है। वेदों में ज्योतिष के नियमों की चर्चा है परंतु भविष्यवाणी करने की विधि नहीं लिखी गई है। ऋषियों ने तपस्या करके इस इनके भेदों को जाना और इसलिए उसे सही तरह समझने की आवश्यकता है। अगर इतिहास को देखें तो ज्योतिषी हमेशा से राज दरबारों से जुड़े रहे हैं और ज्योतिष का विकास भी उसी समय हुआ है।
हमारे देश में इस विधा में परिवर्तन तथा पोंगा पंडितों का आगमन मुगल तथा अंग्रेजों के अधीन रहे जिससे न केवल हमारे समाज में परिवर्तन आया बल्कि शिक्षा क्षेत्र भी पीछे गया।
हमारा समाज सबको समानता देने वाला समाज था लेकिन इन वर्षों में यह पुरुष प्रधान समाज में बदल गया। इसका एक कारण स्त्रियों को इन शासकों की नजर से बचाना भी था लेकिन इसका फायदा उठाते हुए रूढ़िवादी पंडितों ने चीजों की व्याख्या बदलना शुरू कर दिया।
विद्या दो प्रकार की होती है पराविद्या और अपराविद्या। पराविद्या ब्रह्म विद्या है और ज्योतिष अपराविद्या। पराविद्या के लिए नियम दिए गए हैं जिनके अनुसार यह विद्या सभी को नहीं दी जा सकती है लेकिन अपराविद्या ऐसे नियमों को बाध्य नहीं है।
ज्योतिष शास्त्र अपराविद्या होने के कारण स्त्री-पुरुष तथा किसी भी जाति के व्यक्ति के द्वारा ग्रहण की जा सकती है। लेकिन रूढ़िवादी लोगों ने अपनी मनमानी चलाने के लिए इसे पराविद्या की तरह नियमों में बांध दिया और इस तरह ये विद्या पोंगा पंडितों के हाथ में चली गई जिन्होंने इसका विकृत रूप समाज में प्रस्तुत किया और यही से भय शब्द का संबंध ज्योतिष से जुड़ गया। इन पंडितों को समझ में आ गया कि जितना भय दिखाया जाएगा उतना ही मुनाफा कमाया जा सकता है।
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम विविधाश्च पृथक्येष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्।
अर्थात अधिष्ठान, कर्ता, करण इंद्रिय चौथा है चेस्टा और पांचवा है देव।
हम योजना बनाते हैं और अंतिम पर आकर कुछ और हो जाता है यही है देव यानि भाग्य अर्थात पिछले किए कर्मों के अनुसार शुभ तथा अशुभ। तो दोष किसी का भी नहीं मानना चाहिए। हर व्यक्ति अपने कर्मों के कारण ही शुभ-अशुभ का भोग करता है। कुंडली में ज्योतिषी का कार्य दैव को पढ़कर परामर्श के लिए आए व्यक्ति को सही राह दिखाना है। इसलिए ज्योतिषियों को दैवेज्ञ भी कहते हैं। परंतु ये पोंगा पंडित लोगों को सही राह दिखाने की जगह उन्हें डराकर अपनी जेबें भरते हैं। ऐसे ज्योतिषी अधकचरा ज्योतिषी हैं। श्रीमदभगवद गीता में भी श्री कृष्ण ने कहा है कि आत्मा कभी नहीं मरती, वो केवल अपना शरीर बदलती है। इसका अर्थ यह हुआ कि हम चाहे जितने जन्म ले ले हमारा संबंध हमारे कर्मों से नहीं छूटता और अच्छे तथा बुरे कर्मों का फल हमें भोगने के लिए बार-बार जन्म लेना पड़ता है। अच्छे कर्मों का फल हमें अच्छे समय के रूप में मिलता है और बुरे कर्मों का फल हमें कष्ट देता है।
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हमारी दशाएं उन्ही अच्छे व बुरे कर्मों के फल के अनुपात में हमें मिलती हैं। मनुष्य की यह प्रकृति है कि वह केवल सुख ही भोगना चाहता है। उसके लिए कष्ट का समय निकालना मुश्किल हो जाता है और उससे निकलने के लिए वह कुछ भी करने के लिए तैयार हो जाता है। इसी का फायदा कुछ लोग ज्योतिष के माध्यम से उठाते हैं और एक सफल व्यापारी की तरह न केवल उस समय उन्हें लूटते हैं बल्कि आगे चलकर ऐसे डर पैदा कर देते हैं कि वो व्यक्ति हर छोटी-बड़ी समस्या के लिए उनके पीछे भागने लगता है।
इसका कारण है कि जीवन में जब धूप और छाया साथ-साथ चलती है तो आदमी को डर दिखाना मुश्किल नहीं होता। मनुष्य शुरू से हीं चाहता है कि उसे कभी दु:ख और परेशानियों का सामना न करना पड़े, पर अगर वह मुसीबत में फंस जाए तो उससे बाहर निकलने के लिए उसे जो राह दिखाई जाए उस पर चलने के लिए तैयार हो जाता है। वह भी बिना सोचे समझे क्योंकि परेशानी की इस घड़ी में यह डराने व लूटने वाले लोग भी उसे आशा की किरण के रूप में दिखाई देते हैं और चाहे अनचाहे वह सब कुछ कर डालते हैं जो शायद उनकी पहुंच से भी बाहर होता है।
समझने की बात यह है कि ज्योतिषी भाग्य विधाता नहीं होता है। तुलसीदास जी ने कहा है -
होईहैं सोई जो राम रचि राखा ।
सूरदास जी ने कहा है -
करी गोपाल की सब होई ।
यह जग विदित है कि किए हुए कर्म का पूरा फल मिलता है। भगवान कृष्ण का साथ होने पर भी पांडवों को वनवास भोगना पड़ा। भगवान राम को अवतार होने पर भी 14 वर्ष वनवास के प्रारब्ध मानकर स्वीकार करना पड़ा। शास्त्र में जो बातें निश्चित है वह कुछ इस प्रकार हैं -
शास्त्रों में कर्म का निरूपण
नास्ति चिंतासमं दु:खं कायशोषणमेव हि। यस्तां सत्यज्य वर्तेत स सुखेन प्रमोदते॥अर्थात चिंता करने की आदत से बढ़कर कोई दु:ख नहीं है क्योंकि यह शरीर को छेद करती है। चिंता मुक्त होकर जो संतुलित जीवन जीता है वही सुखी रहता है।
- पद्म पुराण भूदान खंड
हर मनुष्य का जीवन पूर्व जन्म के कर्मों के भोग की कहानी है उससे कोई नहीं बच सकता क्योंकि मानव जीवन शाश्वत रूप से पाप कर्मों और पुण्य कर्मों का मिश्रण है। जन्म-जन्मांतरों में उनका फल मिलता है। मानव के कर्म हर जन्म में उसका अनुसरण करते हैं।
यह महाभारत का मत है। कर्म अपने कर्ता को उसी तरह पहचानते हैं जैसे गायों के झुंड में भी बछड़ा अपनी माँ को पहचान लेता है।
कर्म की व्याख्या
येन येन तथा यद यत्पुरा कर्म सुनिश्चितम्। तत् तदेतरो भूड्यते नित्यं विहितमात्मना॥
अर्थात जो भी कर्म मानव ने अपने पिछले जन्मों में किए होते हैं उसके परिणाम उसे हीं भोगने पड़ते हैं।
स्वकर्मफलनिक्षेपं विधानपरिरक्षतम्। भूतग्राममिमं काल: समन्तादमपकर्षति॥
अर्थात मानवकृत-कर्म कोष की तरह होते हैं जो शास्त्र विहित विधान के अनुसार सुरक्षित होते हैं। उचित समय आने पर काल कर्मों के कर्ता को अपनी ओर खींचते हैं।
अचोद्यमानानि यथा पुष्पाणि च फलानी च। स्वं कालं नातिवर्तन्ते तथा कर्म पुरा कृतम्॥
अर्थात जैसे फल और फूल बिना प्रेरणा के अपने आप बढ़ते रहते हैं। उसी प्रकार पूर्व जन्मों के किए कर्म के फल काल सीमा का अतिक्रमण किए बिना मिलते रहते हैं।
सन्मान्श्चाआअवमानश्च लाभालाभौ क्षयोदयों। प्रवृता विनिवर्तन्ते विद्यानान्ते पदे-पदे॥
अर्थात सम्मान और अपमान, लाभ और हानि, उत्थान और पतन ये सब पूर्व जन्मों के कर्मों के पद-पद पर मिलने वाले परिणाम है। जब उनको भोग लिया जाता है तो स्वत: समाप्त हो जाते हैं।
आत्मना विहितं दु:खमात्मना विहितं सुखम। गर्भशय्यामुपादाय भुज्यते पौर्वदेहिकम॥
अर्थात सुख या दु:ख पूर्व जन्मों के कर्मों का परिणाम होते हैं। माँ के गर्भ में प्रवेश करते हीं मनुष्य अपने पूर्व जन्मों के परिणाम का अनुभव करने लगता है।
बालो युवा वो वृद्धश्च यत करोति शुभाशुभम। तस्यां तस्मांमवस्थायां भूडक्ते जन्मनि जन्मनि॥
अर्थात बालक हो या वृद्ध विशेष परिस्थिति में वह जो कार्य कर चुका है जन्म-जन्मांतरों में उसे उन्हीं परिस्थितियों में सुख-दु:ख भोगना पड़ता है।
यथा धेनुसहस्त्रेषु वत्सो विन्दति मातरम्। तथा पूर्वकृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति॥
अर्थात जैसे गायों के झुंड में बछड़ा अपनी माँ को पहचान लेता है वैसे हीं विगत जन्मों में किए गए कर्म अपने कर्ता को पहचान लेते हैं और उस तक पहुंच जाते हैं।
ज्योतिष जो कि एक बहुत हीं पवित्र विद्या है संसार में एक बड़ी ठगी विद्या बन चुकी है। संसार के हर शहर के हर गली-कूचे में ऐसे पोंगा पंडितों और ज्योतिषियों की भरमार है जो इस ऋषि प्रणीत विद्या को कलुषित करते आ रहे हैं। ज्योतिष मार्गदर्शन की विद्या न होकर पोंगा पंडितों और अधकचरे ज्योतिषियों के जीवनोपार्जन का साधन बन गया है।
विदेशों में ही नहीं भारत में भी ऐसे पाखंडी ज्योतिषियों के कारण इस विद्या पर संकट के बादल मंडराने लगे थे जब सुप्रीम कोर्ट में इस पाखंड साबित करने की कोशिश की गई। पहला केस मद्रास में हुआ पर कोई ज्योतिषी सामने नहीं आया जिसके कारण वहां कैसे एडमिट नहीं हो सका।
फिर पद्मना भैया नाम के एक वैज्ञानिक ने जिन को भारत सरकार से पद्मभूषण मिला है ने ज्योतिष के विरुद्ध आंध्र प्रदेश में केस किया। पर किसी भी ज्योतिषी के ना आने के कारण वहां भी केस एडमिट नहीं हो सका। फिर उन्होंने शांति भूषण को लेकर सुप्रीम कोर्ट में अपील की और वहां केस एडमिट कर लिया गया।
उस समय श्री के एन राव जी ने पेटिशनरी इन पर्सन बनकर केस लड़ा तब कोर्ट में वही एकमात्र ज्योतिषी थे और कोई ज्योतिषी वहां नहीं गया। स्वतंत्र भारत में 50 वर्षों से ज्योतिष के नाम पर अपनी जेब भरने वाले तथाकथित ज्योतिषी ज्योतिष की रक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट के प्रांगण में नहीं आए। इसी से उनकी ज्योतिष के प्रति आस्था व निष्ठा पूर्ण रूप से स्पष्ट होती है क्योंकि उनके लिए यह विद्या नहीं बल्कि कमाई का साधन मात्र है। पर उस समय श्री राव सर ने ज्योतिष के पक्ष में खड़े होकर अपने दम पर विजय प्राप्त की।
अब वो दिन दूर नहीं जब यूरोप की तरह यहां भी ऐसे पाखंडियों के लिए सजा का प्रावधान आ जाए और शायद तभी लोगों को इन दुष्टों से छुटकारा प्राप्त हो पाए। जब तक यह सब कुछ हो हमारी कोशिश शोध के माध्यम से लोगों को सच्चाई का आईना दिखाने की रहेगी।
इसलिए आप सभी से आग्रह है कि ऐसे ज्योतिषी जो आपको कालसर्प दोष, पितृदोष, शनि इत्यादि का भय दिखाकर आपसे पैसे ऐंठने की कोशिश करें। उनसे जल्द से जल्द दूरी बना लें और उनके बहकावे में न आए। हमेशा याद रखिए, आपके द्वारा पूर्व में किए गए कर्म हीं आपके अच्छे और बुरे समय के रूप में आपके सामने आते हैं और बुरे समय को टालने में बड़े से बड़ा ज्योतिषी भी कुछ नहीं कर सकता है।
इसलिए अपने कर्म अच्छे रखिए, दूसरों की सहायता करिए और दिन का एक समय भगवान के भजने के लिए जरूर निकालिए। चूँकि बुरा समय आपके पूर्व में किए गए बुरे कर्मों का हीं परिणाम है जिसे हर हाल में भोगना हीं है लेकिन भगवान का स्मरण करते रहने से बुरा समय व्यतीत होते देर नहीं लगती।
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